शाम से आँख में नमी सी है, आज फ़िर आपकी कमी सी है,
दफ़न कर दो हमें की साँस मिले, नब्ज़ कुछ देर से थमी सी है,
वक्त रहता नहीं कहीं छुपकर, इसकी आदत भी आदमी सी है,
कोई रिश्ता नहीं रहा फ़िर भी, एक तस्लीम लाज़मी सी है,
वो ख़त के पुर्जे उडा रहा था, हवाओं का रूख दिखा रहा था,
कुछ और भी हो गया नुमाया, मैं अपना लिखा मिटा रहा था,
उसी का इमा बदल गया है, कभी जो मेरा खुदा रहा था,
वो एक दिन एक अजनबी को, मेरी कहानी सुना रहा था,
वो उम्र कम कर रहा था मेरी, मैं साल अपने बढ़ा रहा था,
तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो, क्या गम है जिसको छुपा रहे हो,
आंखो में नमी हँसी लबो पर, क्या हाल है क्या दिखा रहे हो,
बन जायेंगे ज़हर पीते पीते, ये अश्क जो पीते रहे हो,
जिन ज़ख्मों को वक्त भर चला है, तुम क्यूं उन्हें छेड़े जा रहे हो,
रेखाओं का खेल है मुक्क़द्दर, रेखाओं से मात खा रहे हो,
तराश्ता हूँ तुझे जिन में अपने लफ्जों से, बहुत हसीन मेरे वो ख्याल होते है,
हसीन होती है जितनी बला की दो आँखें, उसी बला के उन आंखों में जाल होते हैं,
वह गुनगुनाते हुए, यूँही, जो उठाते है, क़दम कहाँ, वो क़यामत की चाल होते हैं,
तू अपने दिल की जवाँ धडकनों को गिन के बता, मेरी तरह तेरा दिल बेकरार है के नही,
वो पल के जिस में मोहब्बत जवाँ होती है, उस एक पल का तुझे इंतज़ार है के नही,
तेरी उम्मीद पे ठुकरा रहा हूँ दुनिया को, तुझे भी अपने पे ये ऐतबार है के नही,
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